क्या कोई ख़ास वजह हैं या यूँ ही शर्माती हो तुम,
आख़िर क्यूँ मुझे देखकर अपनी नजरें झुकाती हो तुम।
नहीं राब्ता कुछ मुझसे दिन भर यहीं कहती रहती हो,
फिर क्यूँ ख्वाब में आकर मुझको जगाती हो तुम।
तुम्हें देखूँ भी नहीं और तुमसे बात भी ना करूँ मैं,
ये आख़िर किस गुनाह की सज़ा मुझे दिये जाती हो तुम।
तुम्हें खुद भी ये बात मालूम नहीं हैं शायद,
कि हर जगह हर शय में मुझको नजर आती हो तुम।
बस ये कि लबों से अपने कुछ ज़ाहिर नहीं करती हो,
मगर आँखों में अपने कितनी बातें छुपाती हो तुम।
~महेश कुमार बोस
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