औरों को तो पता नहीं तुम कैसी लगती हो,
जैसी भी हो जो भी हो मुझको अच्छी लगती हो।
जैसी भी हो जो भी हो मुझको अच्छी लगती हो।
इस बात का तुमने मेरी क्या मतलब समझा,
मैंने तो बस ये बोला था अच्छी लगती हो।
मैंने तो बस ये बोला था अच्छी लगती हो।
ना जाने हर पल किस सोच में डूबी रहती हो,
जो भी हो ऐसे डूबी हुयी भी अच्छी लगती हो।
जो भी हो ऐसे डूबी हुयी भी अच्छी लगती हो।
एक बात कहूँ क्या बोलों तो कह डालू एक बार क्या,
सौ बार भी बोलू तो कम हैं कि अच्छी लगती हो।
इस सादगी का हीं श्रृंगार बहुत हैं घायल करने को,
बिना किसी श्रृंगार के भी तुम कितनी अच्छी लगती हो।
बिना किसी श्रृंगार के भी तुम कितनी अच्छी लगती हो।
इस दुनिया के सारे जेवर तुम्हारे रंग पे फीके हैं जानाँ,
चाँद भी खुद जलता हैं तुमसे इतनी अच्छी लगती हो।
चाँद भी खुद जलता हैं तुमसे इतनी अच्छी लगती हो।
होगें हसीन चाहें लाख भले हीं और ज़माने में,
मुझको तो बस तुम्हीं उन सबमें अच्छी लगती हो।
मुझको तो बस तुम्हीं उन सबमें अच्छी लगती हो।
~महेश कुमार बोस