Friday 18 October 2019

अच्छी लगती हो

औरों को तो पता नहीं तुम कैसी लगती हो,
जैसी भी हो जो भी हो मुझको अच्छी लगती हो।

इस बात का तुमने मेरी क्या मतलब समझा,
मैंने तो बस ये बोला था अच्छी लगती हो।

ना जाने हर पल किस सोच में डूबी रहती हो,
जो भी हो ऐसे डूबी हुयी भी अच्छी लगती हो।

एक बात कहूँ क्या बोलों तो कह डालू एक बार क्या, 
सौ बार भी बोलू तो कम हैं कि अच्छी लगती हो।

इस सादगी का हीं श्रृंगार बहुत हैं घायल करने को,
बिना किसी श्रृंगार के भी तुम कितनी अच्छी लगती हो।

इस दुनिया के सारे जेवर तुम्हारे रंग पे फीके हैं जानाँ,
चाँद भी खुद जलता हैं तुमसे इतनी अच्छी लगती हो।

होगें हसीन चाहें लाख भले हीं और ज़माने में,
मुझको तो बस तुम्हीं उन सबमें अच्छी लगती हो।

~महेश कुमार बोस

Thursday 10 October 2019

बुलंदियों के नशे में जो चूर रहता हैं

बुलंदियों के नशे में जो चूर रहता हैं, 
ख्याल रहे वो कुछ ही दिन मशहूर रहता हैं
गुमान ना करना किसी बात का ऐ इंसान,
हर ऊँची के इमारत के गिरने का खतरा जरूर रहता हैं

~महेश कुमार बोस

मुद्दा ना चैन का ना आराम का हैं

मुद्दा ना चैन का ना आराम का हैं  ,
ये वक्त तो हुज़ूर के जाम का हैं

जिसे छेड़ती हैं दिन में तितलियाँ,
ये दिल दिवाना उस के नाम का हैं

अब तुम्हीं रखो इसे अपने पास जानाँ,
ये दिल अब मेरे किस काम का हैं

कबूतर जिसको चूम के झूम उठे,
लगता हैं ये खत तो किसी गुलफ़ाम का हैं

कभी मिले फुरसत तुम्हें तो पूछ लेना कि,
क्या हाल आजकल तेरे गुलाम का हैं


~महेश कुमार बोस

Wednesday 9 October 2019

हम तो तुझे तेरी हर कमी के साथ कबूल करते हैं

जो करते आये हैं मुद्दत से, फिर वहीं भूल करते हैं,
आज फिर एक दफ़ा खुद को, तेरी यादों में मशग़ूल करते हैं।
तू चाहें रूसवा कर या रख वास्ता मुझसे तेरी मर्ज़ी, 
हम तो तुझे तेरी हर कमी के साथ कबूल करते हैं। 

~महेश कुमार बोस

Monday 7 October 2019

मुलाक़ातें तो मुआमला है मुद्दतों का,

मुलाक़ातें तो मुआमला है मुद्दतों का,
पर गुफ़्तगू उनसे मुसलसल जारी है।
दिन तो फिर भी है यारो कुछ निजी,
पर राते है जितनी भी सब सरकारी है।

~महेश कुमार बोस

शिकायत नहीं किसी से

शिकायत नहीं किसी से कि, कोई हमनशीं हमसफ़र यार ना मिला,
फक्र है इतनी कीमती थी मोहब्बत हमारी कि कोई खरीददार ना मिला।

~महेश कुमार बोस

कुछ नहीं कर सके ज़माने से बढ़कर जमाने में

कुछ नहीं कर सके ज़माने से बढ़कर ज़माने में,
ज़िंदगी गुजार दी हमने ज़िंदगी बनाने में।

~महेश कुमार बोस

अब वो पहले से मन में भ्रम नहीं रहे,

अब वो पहले से मन में भ्रम नहीं रहे,
तुम तुम नहीं रहे, हम हम नहीं रहे।

~महेश कुमार बोस

बात जो भी हो दिल में खुलकर बता दिजिये,

बात जो भी हो दिल में खुलकर बता दिजिये,
अब ना यूँ खामोश रहकर मुझे सजा दिजिये।

~महेश कुमार बोस

क्या मेरी आँखों का ये इंतजार खत्म नहीं होगा?

क्या ये रुखापन तुम्हारा मेरे यार खत्म नहीं होगा?
क्या मेरी आँखों का ये इंतज़ार खत्म नहीं होगा?

~महेश कुमार बोस

आप मुझसे मिलते रहियेगा।

ग्रीष्म, शिशिर, वसन्त
शरद्, बरखा, हेमन्त।
हर मौसम में खिलते रहियेगा।
आप मुझे बहुत अच्छे लगे,
आप मुझसे मिलते रहियेगा।

~महेश कुमार बोस

आँखों का दिल से किया हुआ क़रार

आँखों का दिल से किया हुआ क़रार खत्म हुआ।
आपका जवाब आया मेरा इंतज़ार खत्म हुआ।

~महेश कुमार बोस

अब मिलता नहीं

"अब मिलता नहीं मै खुद को पहले जैसा,
लगता है खुद को कहीं खो चुका हूं मैं..

~महेश कुमार बोस

तुम्हारे होने का भ्रम पाल रखा है

तुम्हारे होने का भ्रम पाल रखा है,
कुछ इस तरह हमने दिल को संभाल रखा है।
तुमसा जानाँ कोई मिला हीं नहीं,
यूँ तो हमने पूरा समंदर खंगाल रखा है।

~महेश कुमार बोस

रंग बिखर रहे हैं

रंग बिखर रहे हैं आज हर गली-चौबारों में,
फिर भी हैं सूनापन मेरे मन के गलियारों में, 
तुम गर आ जाती तो मन पुलकित हो जाता,
घुल जाता मैं भी तुम संग प्रिये आज बहारों में।

~महेश कुमार बोस

जागते ही रह गये हम

जागते ही रह गये हम,
चैन से कभी सो न पाये।
हम तुम्हारे हो गये पर,
तुम हमारे हो न पाये।
माँग कर भी देख लिया हमने तुमको,
चाहकर भी देख लिया हमने तुमको
पर बीज चाहत का ह्रदय में तुम्हारे
प्रिये हम फिर भी बो न पाये
हम तुम्हारे हो गये पर,
तुम हमारे हो न पाये।
~महेश कुमार बोस

अपनी ही कहानी से ना हो जाये कही बेदख़ल

अपनी हीं कहानी से ना हो जाये कहीं बेदख़ल इसलिए,
हम कि अहल-ए-सुख़न बस किरदार बदलते रहते हैं।

~महेश कुमार बोस

अब तो गिले-शिकवे भुला दो जानाँ

अब तो गिले-शिकवे भुला दो जानाँ,
नफ़रतों को सारी जला दो जानाँ।
दुनिया ने सदा रूसवा ही किया,
अपनी जुल्फों में छुपा दो जानाँ।
आज मैं बहुत फ़ुर्सत में हूँ आज,
कुछ भी काम करवा दो जानाँ।
गम मिट जाये सारे सीने के मेरे,
कुछ इस तरह सीने से लगा दो जानाँ।
अब तो मुझे सबकुछ ही कबूल हैं,
किसी भी नाम से बुला दो जानाँ।

~महेश कुमार बोस

अपने ग़मों को आप मेरे दिल का पता दीजियेगा

अपने ग़मों को आप मेरे दिल का पता दीजियेगा,
अपने जख़्मो पर आप मेरी ग़ज़ल लगा दीजियेगा।
जब भी कोई पूछे तुमसे नाम पता मेरा तो,
मेरी ग़ज़ल का शेर कोई उसे सुना दीजियेगा।

महेश कुमार बोस

कौन कहता हैं मौसम इश्क़ का बार बार नहीं आता

कौन कहता हैं मौसम इश्क़ का बार बार नहीं आता,
इश्क़ के कलेण्डर में तो कभी रविवार नहीं आता।
एक तू हीं हैं जो पत्थर बना बैठा है वरना
यहाँ कौन हैं जिसे मुझ पर प्यार नहीं आता।

~महेश कुमार बोस

तुम पर ज़माने के धरे हुये इल्ज़ाम को भूल जाता हूँ

तुम पर ज़माने के धरे हुये इल्ज़ाम को भूल जाता हूँ,
कभी कभी तो मैं अपने नाम को भूल जाता हूँ।
यूँ तो सब किस्से कहानियाँ मुँह जुबानी याद रखता हूँ।
मगर जो बात कहनी है सुबह, उसे शाम को भूल जाता हूँ।
सुख़न से यारो अपना कुछ ऐसा नाता हैं कि मैं,
मीर, ग़ालिब, जौन को पढ़ते पढ़ते आराम को भूल जाता हूँ।

~महेश कुमार बोस

Saturday 5 October 2019

खुद में खोकर खुद को पाना

खुद में खोकर खुद को पाना
कौन बड़ी फनकारी है।
तुझमें खोकर खुद को पाऊँ,
कुछ ऐसी जिद्द हमारी है।
रात भर तेरी यादों में सफर मेरा,
ख्वाब तेरे मेरी नींदो की सवारी है।
बाहर तो हैं सब खुला-खुला,
दिल के अंदर पर मारामारी है।
तुझ ही को चाहूँ, तुझ ही को पाऊँ,
आजकल मुझे ये अजब बीमारी है।
तुझको मैं कहकर जान पुकारूँ,
इतनी तो तुम पर मेरी हकदारी है।

~महेश कुमार बोस

जनाब सियासी भाषा मत बोलिए

जनाब सियासी भाषा मत बोलिए,
महज़ देने को दिलासा मत बोलिए।

बोलिये सच चाहें क्यों ना हो कड़वा,
मगर करने को तमाशा मत बोलिए।

बड़ी ज़िल्लते सहकर पायीं हैं खुद्दारी हमने,
चंद सिक्कों में हमारा जमीर मत तोलिये।

निकलेगे कई समन्दर इनके अंदर भी,
सलीके से कोई एक सीप तो खोलिये।

~महेश कुमार बोस

जो सुनी जाती हैं

जो सुनी जाती हैं, वहीं सुनी जाती,
अगर जो बात हैं कहनी कहीं जाती।

तुम्हें भले लगे, कड़वी या मीठी,
सुनो वहीं बात जो हैं कहीं जाती।

किसी के दूर चले जाने से किसी से,
सांसें चलती हैं, थम नहीं जाती।

तुम चली गयी हो ये सच हैं जानाँ,
पर तुम्हारी याद क्यों नहीं जाती।

'बेख़ुद' तुम्हारे उदास हो जाने से,
किसी के चेहरे की हंसी नहीं जाती।

~महेश कुमार बोस 'बेख़ुद'

Friday 4 October 2019

ज़िन्दगी कुछ ही दिनों की मेहमान होती है

ज़िन्दगी कुछ ही दिनों की मेहमान होती है,
हर इंसान की आखिरी मंज़िल श्मशान होती है
परिंदों के परों को क्यों मिसाल दी जाती है?
जबकि परों से नहीं हौंसलो से उड़ान होती है
मेरे सपनों का हिन्दोस्तान है कुछ ऐसा की,
जहाँ इंसानियत सबका धर्म सबकी शान होती है
ना जाने क्यू लोग धर्म बनाते हैं बांटने के लिए?
जबकि धरती सबके लिए एक सामान होती है
लम्बी उम्र जीकर क्या करोगे जनाब ‘बेखुद’ जबकि,
यशस्वी जीवन ही शख्सियत की पहचान होती है
~महेश कुमार बोस

हाँ मत करो बात मुझसे

हाँ मत करो बात मुझसे
तुम्हारी मर्जी।
अपनो को क्या देना पडे
बार-बार माफी की अर्जी।
हाँ मानता हूं मैं हो जाती है गलतिया अक्सर
इंसान है हम खुदा तो नहीं।
जरा सी बात पर इतने दिन तक रूठे रहना
ऐसी भी क्या हो खुदगर्जी।
हाँ मत करो बात मुझसे
तुम्हारी मर्जी।
एक पल में ही भूल गए
तुम वो सारी बातें
वो कसमे-वादे
वो सब मुलाकाते।
तुमको क्या है
तुम्हारे लिए तो है
ये सारी बातें फर्जी
करलो तुम भी जितनी
करनी है तुमको मनमर्जी
हाँ मत करो बात मुझसे
तुम्हारी मर्जी।
बार-बार तुम रुठो
बार-बार मैं मनाता रहू
अब कितनी बार मैं
ये किस्सा दोहराता रहू।
सुनो अगर मैं रूठ गया ना
तो तुम लिखते ही रह जाओगे अर्जी।
बहुत हो गयी तुम्हारी मनमर्जी,
अब देखना तुम भी मेरी खुदगर्जी।
हाँ मत करो बात मुझसे
तुम्हारी मर्जी।
~ महेश कुमार बोस 

सुनहरी शाम

ये सुनहरी शाम और ये जाती हुयी सूरज की धूप,
कितना खूबसूरत लगता हैैं प्रकृति का ये अनमोल रूप।
ये हवा की हसीन अदायें,
कितनी जचती हैं ये वादियों पे फिजायें।
ये कुदरत का नजारा मन मोह लेता हैैं
राह चलते मुसाफ़िरों के कदम,
निहारने के लिए रोक लेता हैं।
ये सूरज भी ना कितना इंतज़ार करवाता हैं,
मगर जब अपने घर वापस जाता हैं।
इस सुनहरी शाम की सौगात देकर जाता हैं,
ये पहर सबके मन को बहुत भाता हैं।
इस सुनहरी शाम के नजारे को कैद करने,
कोई छत पर, कोई नदी तट पर,
कोई पर्वत पर, कोई उद्यान में जाता हैं,
ये मनमोहक नज़ारा मन को असीम सुख दिलाता हैं।

~महेश कुमार बोस

सम्मान करे आओ सब मिलकर

सम्मान करे आओ सब मिलकर राष्ट्र के माथे की बिंदी का,
गौरव गान करे आओ सब मिलकर हम हिंदी का।
वह हिंदी जो रूप अनेकों धारण करती हैं,
वह हिंदी जो करोड़ों लोगों का मन भरती हैं।
वह हिंदी जो मीरा और तुलसी की वाणी हैं,
जिस हिंदी में गायी कबीरा ने अमृत वाणी हैं।
जिस हिंदी में दिनकर, पंत, निराला लिखते थे,
जिस हिंदी के दिवाने प्रेमचंद खुद दिखते थे।
आओ उस हिंदी को जन-जन तक पहुँचाते हैं,
आओ हम सब मिलकर हिंदी दिवस मनाते हैं।
हिंदी जो तत्सम, तद्भव शब्दों को भी अपनाती हैं,
हिंदी देशी और विदेशी शब्दों को भी गले लगाती हैं।
महिमा हिंदी की सब भाषाओं से कितनी न्यारी हैं,
इसीलिए ही तो मुझको लगती हिंदी सबसे प्यारी हैं।
छंदों और अलंकारों से सुसज्जित स्वरूप निराला हिंदी का,
आओ पिये सब मिलकर नवरसों से भरा ये प्याला हिंदी का।
अंग्रेजी के कमरों पर आओ लगाये मिलकर ताला हिंदी का
उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक बोल हो बाला हिंदी का।
~महेश कुमार बोस

जिनके कांधे से दुपट्टा भी ना छुटना चाहे

जिनके कांधे से दुपट्टा भी ना छुटना चाहे,
जिसे देखकर फूल भी भरने लगते हैं आंंहे।
वो जगह महकने लगती हैं जहाँ वो जाते हैं,
हम क्या वो तो फरिश्तों पर भी सितम ढाते हैं।
उनके बारे में यारों भला अब क्या कहे हम,
बहुत कहना हैं पर वो चाहते हैं चुप ही रहे हम।
वो तो अपनी आंखों से कई पैमाने भर सकते हैं,
उनकी एक झलक पाने को लाखों दिवाने मर सकते हैं।
वो जब कभी अचानक अपनी नजरें झुकाते हैं,
गुल सभी गुलशन के एक साथ झुक जाते हैं।
वो जब हवा में यूँ ही अपना दुपट्टा लहराते हैं,
गुलाब, चमेली, मोगरे डाल संग गिर जाते हैं।
उनकी बातें तो यारों मिश्री की डलिया हैं,
उनके बाल फूलों वाले बेलो की लडियाँ हैं।
उनके गालों का तो महताब खुद दिवाना हैं,
उनके होठ जैसे किसी गुलाब की पंखुड़ियाँ हैं।
वो जब कभी हौले-हौले हंसते मुस्काते हैं,
बेमौसम ही बरखा वाले बादल छा जाते हैं।
~महेश कुमार बोस