Sunday 8 December 2019

ये तितली कौनसे बाग से उड़कर आयी हैं

संग अपने ये जो खुशबू नयी सी लायी हैं।
ये तितली कौनसे बाग से उड़कर आयी हैं।

देखकर हीं जिसकों सारे जुगनू मर रहें हैं,
एक झलक पाने को फूल आंहे भर रहें हैं।
बस अभी से तुम्हारी सांसें बढ़ रहीं हैं,
अब तक तो ली केवल उसने अंगड़ाई हैं।
संग अपने ये जो खुशबू नयी सी लायी हैं,
ये तितली कौनसे बाग से उड़कर आयी हैं।

आँखों में ख्वाब का एक दरिया तैर रहा हैं,
मेरा दिल जिसकी खुशबू के पीछे कर सैर रहा हैं।
लगता हैं इससे ही दुनिया के सारे रंग बने हैं,
बरखा ने भी बोला हैं इंद्रधनुष में यहीं समायी हैं।
संग अपने ये जो खुशबू नयी सी लायी हैं,
ये तितली कौनसे बाग से उड़कर आयी हैं।

ना जाने कितने पिकासो इसको खोज रहें हैं,
इसके खातिर कितने फ़लसफ़ी मर रोज रहें हैं।
कितनी ग़ज़लें, कितनी नज़्में, कितने गीत और
ना जाने कितनी बाकी इस पर लिखीं जानी रुबाई हैं।
संग अपने ये जो खुशबू नयी सी लायीं हैं
ये तितली कौनसे बाग से उड़कर आयीं हैं।

किसी के कांधे के दुपट्टे

किसी के कांधे के दुपट्टे,माथे की बिंदिया और आँख के काजल के लिए,
जिंदगी यूँ हीं गुजर जायेगी क्या एक पागल के लिए।

अपनी पसंद की छत भीगो लेना और बाकी सुखा छोड़ देना,
यह बात कहा अच्छी हैं यारों किसी बादल के लिए।

मैंने खुद अपने हाथ से तोड़ दिया मेरे सीने का वो पत्थर,
जब मालूम हुआ बना हीं नहीं कोई दिल मेरे इस दिल के लिए।

मैंने तुम्हारी खुशबू को भी जगह दी हैं मेरी ग़ज़लों में,
तुम्हें नहीं मालूम कितना मुश्किल हैं बांधना समन्दर को एक साहिल के लिए।

कोई हाथ पकड़कर नहीं पहुंचाता हैं 'बेख़ुद' मंजिल तक,
खुद ही बनाना पड़ता हैं रास्ता अपनी मंजिल के लिए।

Sunday 1 December 2019

हर एक शख़्स में यहाँ एक हैवान छुपा रहता हैं

हर एक शख़्स में यहाँ एक हैवान छुपा रहता हैं।
क्या अब भी तुम्हें लगता हैं कि यहाँ खुदा रहता हैं|

इन मासूम कलियों ने आख़िर किसी का क्या बिगाड़ा हैं,
फिर क्यूँ इनके पीछे इंसान बनकर दरिंदा लगा रहता हैं।

मेरी बद्दुआ हैं वो दरख़्त कट जाये, वो छत गिर जाये,
जिसके सायें में आदमी की शक्ल में कोई भेड़िया रहता हैं।

सज़ा-ए-मौत भी कुछ नहीं उस ज़ाहिल के लिए,
जिंदा जला दो जिसके अंदर हवस का ये कीड़ा रहता हैं।

जिंदगी देने वालें की ही जिंदगी छीन ली जानवरों ने,
और खुदा तू हैं कि ये सब चुपचाप देखता रहता हैं।

Saturday 30 November 2019

कब से टिकी हैं निगाहें मेरी

कब से टिकी हैं निगाहें मेरी मोबाइल की स्क्रीन पर, 
कब उगेगा उसके मैसेज का पौधा इस बंजर जमीन पर।
तुम बताने आये हो मुझे मतलब इश्क़-ओ-आशिक़ी का,
जी करता हैं मार दू पत्थर गुमां का तुम्हारे यकीन पर।

Monday 25 November 2019

एक ग़ज़ल मुक्कमल हो जाये

एक ग़ज़ल मुक्कमल हो जाये ऐसा ख्याल दो कोई,
चार शेर तो पूरे हो चुके, मक़ता झोली में डाल दो कोई।

मैं भी तो अपनी होशियारी का पता दू तुमको,
हल करने को गणित का मुझको सवाल दो कोई।

फ़न-ए-शाइरी तो मुझको मेरे रब तुमने सौंप दी,
हर तरफ़ मगर ये चल जाये ऐसा कमाल दो कोई।

अभी तो इस राह पर मुझको चलना हैं बहुत,
उसकी याद का कांटा मेरे पांव से निकाल दो कोई।

तुम अगर ना आ सको तो इतना काम मेरा कर दो,
एक दुपट्टा, एक बिंदिया और भिजवा अपना शाल दो कोई।

~महेश कुमार बोस

तुम्हारी पल भर की वफ़ा का

तुम्हारी पल भर की वफ़ा का अच्छा सिला दूगां तुमको।
एक ग़ज़ल का तोहफ़ा देकर विदा दूगां तुमको।

अभी एकदम से जाओगे तो संभल ना पाऊँगा मैं,
कुछ वक्त दो मुझे मैं खुद हीं भुला दूगां तुमको।

तुम्हारी आँख का हर आंसू मेरी आँख से गिरता हैं,
फिर कैसे बिना किसी बात के रूला दूगां तुमको।

जाते जाते अपनी तस्वीर का एक तोहफ़ा दे दो,
जब मन भर जायेगा मेरा फिर से लौटा दूगां तुमको।

तुम्हारा नाम लेने से हीं जब तुम्हारी खुशबू महकने लगती हैं,
फिर ये कैसे सोच लिया तुमने कि दिल से मिटा दूगां तुमको।

~महेश कुमार बोस

Sunday 24 November 2019

क्या कोई ख़ास वजह हैं या यूँ हीं शर्माती हो तुम

क्या कोई ख़ास वजह हैं या यूँ ही शर्माती हो तुम,
आख़िर क्यूँ मुझे देखकर अपनी नजरें झुकाती हो तुम।

नहीं राब्ता कुछ मुझसे दिन भर यहीं कहती रहती हो,
फिर क्यूँ ख्वाब में आकर मुझको जगाती हो तुम।

तुम्हें देखूँ भी नहीं और तुमसे बात भी ना करूँ मैं,
ये आख़िर किस गुनाह की सज़ा मुझे दिये जाती हो तुम।

तुम्हें खुद भी ये बात मालूम नहीं हैं शायद,
कि हर जगह हर शय में मुझको नजर आती हो तुम।

बस ये कि लबों से अपने कुछ ज़ाहिर नहीं करती हो,
मगर आँखों में अपने कितनी बातें छुपाती हो तुम।

~महेश कुमार बोस

या तो दिल में तू अपने संभाल ले मुझको

या तो दिल में तू अपने संभाल ले मुझको।
या फिर हर एक किस्से से तू निकाल ले मुझको।

चित भी आया तो मैं तेरा,पट भी आया तो मैं तेरा,
भले सिक्का समझकर हवा में उछाल ले मुझको।

तुझसे लगकर महकता रहूँगा जब तक तू कहेगी,
अपने जिस्म पर इत्र समझकर डाल ले मुझको।

मैं तो पत्थर था तेरे छूने से ही तो मोम हुआ हूँ,
अब तेरी मर्जी किसी भी साँचे में ढ़ाल ले मुझको।

मैं बरसों से यहीं एक ख़िताब तो पाता रहा हूँ सबसे,
सो तू भी अब अपनी निगाहों से टाल ले मुझको।

~महेश कुमार बोस

Saturday 23 November 2019

निकाल दो बाहर अपने दिल ओ दिमाग से तुम मुझको


निकाल दो बाहर अपने दिल ओ दिमाग से तुम मुझको।
दख़ल कर दो अपने हर एक हिसाब से तुम मुझको।

मैं हूँ भी इसी काबिल सो यहीं हश्र करो मेरे साथ,
पन्ने की तरह कर दो अलग अपनी किताब से तुम मुझको।

एक और यार खो दिया मैंने खुद अपनी चालाकी से,
सो प्यासा ना रहने दो आज साक़ी शराब से तुम मुझको।

वो पंखुड़ियाँ चूभ रहीं हैं अब लबों पर कांटों की तरह,
सो दूर रखना बाग़बान अपने हर एक गुलाब से तुम मुझको।

यहीं एक जगह हैं जहाँ जी सकता हूँ मैं चैन से 'बेख़ुद'
हैं गर बस में तो नवाज़ दो तन्हाइयों के खिताब से तुम मुझको।

~महेश कुमार बोस

Friday 22 November 2019

भीड़ में जब भी उस आँख का इशारा हो जाता हैं

भीड़ में जब भी उस आँख का इशारा हो जाता हैं,
हम लाख करें कोशिश पर प्यार दोबारा हो जाता हैं। 

कोई शख़्स खुद भी आ जाये तो कुछ फर्क नहीं पड़ता,
और किसी की याद हीं से उम्रभर का गुजारा हो जाता हैं।

तुम हर बार हीं आख़िर बार हैं ये कहने आती हो,
और हर बार हीं मेरा दिल फिर तुम्हारा हो जाता हैं।

टूटकर जब सोच-सोच के तेरे बारे में बिखरने लगता हूँ,
फिर तेरे किसी ख्याल का मुझकों सहारा हो जाता हैं।

सामने रहता हैं तब तक कोई राब्ता नहीं रहता उससे,
फिर क्यूँ कोई शख़्स बिछड़ जाने पर इतना प्यारा हो जाता हैं।

~ महेश कुमार बोस

Wednesday 20 November 2019

अपने जिस्म पर खुशबू

अपने जिस्म पर खुशबू तेरी सजाये हुये,
मुद्दत हुयी तुझसे हाथ भी मिलाये हुये।
तुझसे नज़रें मिलाने से भी कतराने लगे हैं,
कदम- कदम पर तूने हैं कातिल बिठाये हुये।
~महेश कुमार बोस

तुम अपने होठों से

तुम अपने होठों से केनवास को चूमती होगी तो, कई
सारी तस्वीरें उकर आती होगी,
क्या तुमने अपने होठों से केनवास को चूमकर मेरी भी कोई तस्वीर बनाई हैं।

~महेश कुमार बोस

मेरे मैसेज बस पढ़कर छोड़ देती हो

बेवजह हीं जब तुम मुझसे मुँह मोड़ देती हो,
ना जाने कितने ख्वाबों को तुम मेरे तोड़ देती हो।
मैं तुम्हारें जवाब के इंतज़ार में कितना बैचेन रहता हूँ,
और तुम हो कि, मेरे msg बस पढ़ कर छोड़ देती हो।

मैं तुम्हारे हर एक ख्याल को ग़ज़ल में पिरोकर रखता हूँ,
मैं तुम्हारी हर एक तस्वीर को आँखों के दरिया में डूबोकर रखता हूँ।
तुम हो कि उन ग़ज़लों को बिना पढें हीं छोड़ देती हो।
मेरी आँखों के दरिया में जाकर उन तस्वीरों को निचोड़ देती हो।
मैं तुम्हारें जवाब के इंतज़ार में कितना बैचेन रहता हूँ।
और तुम हो कि मेरे msg बस पढ़कर छोड़ देती हो।

तुमसे अच्छे तो हैं ख्वाब तुम्हारे जो मुझको तुमसे जोड़े रखते हैं,
और नींद तोड़ने वाले हर पत्थर को आँखों के बाहर छोड़े रखते हैं।
तुम ख्वाब में तो हर रोज ही अपनी कहानी में नया मोड़ देती हो,
और हक़ीक़त में फिर बेपरवाह होके मुझसे नाता तोड़ देती हो।
मैं तुम्हारे जवाब के इंतज़ार में कितना बैचेन रहता हूँ,
और तुम हो कि मेरे msg बस पढ़कर छोड़ देती हो।

~महेश कुमार बोस

ये और बात कि कुछ सहा नहीं जा रहा

ये और बात कि कुछ सहा नहीं जा रहा,
पर दर्द दिल का मुझसे कहा नहीं जा रहा।

कौनसी मय पिलायी थी तूने अपनी आँखों से,
एक अरसा बीता पर अब तक नशा नहीं जा रहा।

लोग कांटों को भी गले लगाये फिर रहे हैं
और मैं फूल होकर भी छुआ नहीं जा रहा।

एक कस आशिक़ी की सिगरेट का मार दिया था,
मुद्दत हुयी मेरी आँखों से धुआँ नहीं जा रहा।

एक शख़्स हैं जो हो नहीं पा रहा मेरा 'बेख़ुद',
एक मैं हूँ जिससे किसी और का हुआ नहीं जा रहा।

~ महेश कुमार बोस

Friday 18 October 2019

अच्छी लगती हो

औरों को तो पता नहीं तुम कैसी लगती हो,
जैसी भी हो जो भी हो मुझको अच्छी लगती हो।

इस बात का तुमने मेरी क्या मतलब समझा,
मैंने तो बस ये बोला था अच्छी लगती हो।

ना जाने हर पल किस सोच में डूबी रहती हो,
जो भी हो ऐसे डूबी हुयी भी अच्छी लगती हो।

एक बात कहूँ क्या बोलों तो कह डालू एक बार क्या, 
सौ बार भी बोलू तो कम हैं कि अच्छी लगती हो।

इस सादगी का हीं श्रृंगार बहुत हैं घायल करने को,
बिना किसी श्रृंगार के भी तुम कितनी अच्छी लगती हो।

इस दुनिया के सारे जेवर तुम्हारे रंग पे फीके हैं जानाँ,
चाँद भी खुद जलता हैं तुमसे इतनी अच्छी लगती हो।

होगें हसीन चाहें लाख भले हीं और ज़माने में,
मुझको तो बस तुम्हीं उन सबमें अच्छी लगती हो।

~महेश कुमार बोस

Thursday 10 October 2019

बुलंदियों के नशे में जो चूर रहता हैं

बुलंदियों के नशे में जो चूर रहता हैं, 
ख्याल रहे वो कुछ ही दिन मशहूर रहता हैं
गुमान ना करना किसी बात का ऐ इंसान,
हर ऊँची के इमारत के गिरने का खतरा जरूर रहता हैं

~महेश कुमार बोस

मुद्दा ना चैन का ना आराम का हैं

मुद्दा ना चैन का ना आराम का हैं  ,
ये वक्त तो हुज़ूर के जाम का हैं

जिसे छेड़ती हैं दिन में तितलियाँ,
ये दिल दिवाना उस के नाम का हैं

अब तुम्हीं रखो इसे अपने पास जानाँ,
ये दिल अब मेरे किस काम का हैं

कबूतर जिसको चूम के झूम उठे,
लगता हैं ये खत तो किसी गुलफ़ाम का हैं

कभी मिले फुरसत तुम्हें तो पूछ लेना कि,
क्या हाल आजकल तेरे गुलाम का हैं


~महेश कुमार बोस

Wednesday 9 October 2019

हम तो तुझे तेरी हर कमी के साथ कबूल करते हैं

जो करते आये हैं मुद्दत से, फिर वहीं भूल करते हैं,
आज फिर एक दफ़ा खुद को, तेरी यादों में मशग़ूल करते हैं।
तू चाहें रूसवा कर या रख वास्ता मुझसे तेरी मर्ज़ी, 
हम तो तुझे तेरी हर कमी के साथ कबूल करते हैं। 

~महेश कुमार बोस

Monday 7 October 2019

मुलाक़ातें तो मुआमला है मुद्दतों का,

मुलाक़ातें तो मुआमला है मुद्दतों का,
पर गुफ़्तगू उनसे मुसलसल जारी है।
दिन तो फिर भी है यारो कुछ निजी,
पर राते है जितनी भी सब सरकारी है।

~महेश कुमार बोस

शिकायत नहीं किसी से

शिकायत नहीं किसी से कि, कोई हमनशीं हमसफ़र यार ना मिला,
फक्र है इतनी कीमती थी मोहब्बत हमारी कि कोई खरीददार ना मिला।

~महेश कुमार बोस

कुछ नहीं कर सके ज़माने से बढ़कर जमाने में

कुछ नहीं कर सके ज़माने से बढ़कर ज़माने में,
ज़िंदगी गुजार दी हमने ज़िंदगी बनाने में।

~महेश कुमार बोस

अब वो पहले से मन में भ्रम नहीं रहे,

अब वो पहले से मन में भ्रम नहीं रहे,
तुम तुम नहीं रहे, हम हम नहीं रहे।

~महेश कुमार बोस

बात जो भी हो दिल में खुलकर बता दिजिये,

बात जो भी हो दिल में खुलकर बता दिजिये,
अब ना यूँ खामोश रहकर मुझे सजा दिजिये।

~महेश कुमार बोस

क्या मेरी आँखों का ये इंतजार खत्म नहीं होगा?

क्या ये रुखापन तुम्हारा मेरे यार खत्म नहीं होगा?
क्या मेरी आँखों का ये इंतज़ार खत्म नहीं होगा?

~महेश कुमार बोस

आप मुझसे मिलते रहियेगा।

ग्रीष्म, शिशिर, वसन्त
शरद्, बरखा, हेमन्त।
हर मौसम में खिलते रहियेगा।
आप मुझे बहुत अच्छे लगे,
आप मुझसे मिलते रहियेगा।

~महेश कुमार बोस

आँखों का दिल से किया हुआ क़रार

आँखों का दिल से किया हुआ क़रार खत्म हुआ।
आपका जवाब आया मेरा इंतज़ार खत्म हुआ।

~महेश कुमार बोस

अब मिलता नहीं

"अब मिलता नहीं मै खुद को पहले जैसा,
लगता है खुद को कहीं खो चुका हूं मैं..

~महेश कुमार बोस

तुम्हारे होने का भ्रम पाल रखा है

तुम्हारे होने का भ्रम पाल रखा है,
कुछ इस तरह हमने दिल को संभाल रखा है।
तुमसा जानाँ कोई मिला हीं नहीं,
यूँ तो हमने पूरा समंदर खंगाल रखा है।

~महेश कुमार बोस

रंग बिखर रहे हैं

रंग बिखर रहे हैं आज हर गली-चौबारों में,
फिर भी हैं सूनापन मेरे मन के गलियारों में, 
तुम गर आ जाती तो मन पुलकित हो जाता,
घुल जाता मैं भी तुम संग प्रिये आज बहारों में।

~महेश कुमार बोस

जागते ही रह गये हम

जागते ही रह गये हम,
चैन से कभी सो न पाये।
हम तुम्हारे हो गये पर,
तुम हमारे हो न पाये।
माँग कर भी देख लिया हमने तुमको,
चाहकर भी देख लिया हमने तुमको
पर बीज चाहत का ह्रदय में तुम्हारे
प्रिये हम फिर भी बो न पाये
हम तुम्हारे हो गये पर,
तुम हमारे हो न पाये।
~महेश कुमार बोस

अपनी ही कहानी से ना हो जाये कही बेदख़ल

अपनी हीं कहानी से ना हो जाये कहीं बेदख़ल इसलिए,
हम कि अहल-ए-सुख़न बस किरदार बदलते रहते हैं।

~महेश कुमार बोस

अब तो गिले-शिकवे भुला दो जानाँ

अब तो गिले-शिकवे भुला दो जानाँ,
नफ़रतों को सारी जला दो जानाँ।
दुनिया ने सदा रूसवा ही किया,
अपनी जुल्फों में छुपा दो जानाँ।
आज मैं बहुत फ़ुर्सत में हूँ आज,
कुछ भी काम करवा दो जानाँ।
गम मिट जाये सारे सीने के मेरे,
कुछ इस तरह सीने से लगा दो जानाँ।
अब तो मुझे सबकुछ ही कबूल हैं,
किसी भी नाम से बुला दो जानाँ।

~महेश कुमार बोस

अपने ग़मों को आप मेरे दिल का पता दीजियेगा

अपने ग़मों को आप मेरे दिल का पता दीजियेगा,
अपने जख़्मो पर आप मेरी ग़ज़ल लगा दीजियेगा।
जब भी कोई पूछे तुमसे नाम पता मेरा तो,
मेरी ग़ज़ल का शेर कोई उसे सुना दीजियेगा।

महेश कुमार बोस

कौन कहता हैं मौसम इश्क़ का बार बार नहीं आता

कौन कहता हैं मौसम इश्क़ का बार बार नहीं आता,
इश्क़ के कलेण्डर में तो कभी रविवार नहीं आता।
एक तू हीं हैं जो पत्थर बना बैठा है वरना
यहाँ कौन हैं जिसे मुझ पर प्यार नहीं आता।

~महेश कुमार बोस

तुम पर ज़माने के धरे हुये इल्ज़ाम को भूल जाता हूँ

तुम पर ज़माने के धरे हुये इल्ज़ाम को भूल जाता हूँ,
कभी कभी तो मैं अपने नाम को भूल जाता हूँ।
यूँ तो सब किस्से कहानियाँ मुँह जुबानी याद रखता हूँ।
मगर जो बात कहनी है सुबह, उसे शाम को भूल जाता हूँ।
सुख़न से यारो अपना कुछ ऐसा नाता हैं कि मैं,
मीर, ग़ालिब, जौन को पढ़ते पढ़ते आराम को भूल जाता हूँ।

~महेश कुमार बोस

Saturday 5 October 2019

खुद में खोकर खुद को पाना

खुद में खोकर खुद को पाना
कौन बड़ी फनकारी है।
तुझमें खोकर खुद को पाऊँ,
कुछ ऐसी जिद्द हमारी है।
रात भर तेरी यादों में सफर मेरा,
ख्वाब तेरे मेरी नींदो की सवारी है।
बाहर तो हैं सब खुला-खुला,
दिल के अंदर पर मारामारी है।
तुझ ही को चाहूँ, तुझ ही को पाऊँ,
आजकल मुझे ये अजब बीमारी है।
तुझको मैं कहकर जान पुकारूँ,
इतनी तो तुम पर मेरी हकदारी है।

~महेश कुमार बोस

जनाब सियासी भाषा मत बोलिए

जनाब सियासी भाषा मत बोलिए,
महज़ देने को दिलासा मत बोलिए।

बोलिये सच चाहें क्यों ना हो कड़वा,
मगर करने को तमाशा मत बोलिए।

बड़ी ज़िल्लते सहकर पायीं हैं खुद्दारी हमने,
चंद सिक्कों में हमारा जमीर मत तोलिये।

निकलेगे कई समन्दर इनके अंदर भी,
सलीके से कोई एक सीप तो खोलिये।

~महेश कुमार बोस

जो सुनी जाती हैं

जो सुनी जाती हैं, वहीं सुनी जाती,
अगर जो बात हैं कहनी कहीं जाती।

तुम्हें भले लगे, कड़वी या मीठी,
सुनो वहीं बात जो हैं कहीं जाती।

किसी के दूर चले जाने से किसी से,
सांसें चलती हैं, थम नहीं जाती।

तुम चली गयी हो ये सच हैं जानाँ,
पर तुम्हारी याद क्यों नहीं जाती।

'बेख़ुद' तुम्हारे उदास हो जाने से,
किसी के चेहरे की हंसी नहीं जाती।

~महेश कुमार बोस 'बेख़ुद'

Friday 4 October 2019

ज़िन्दगी कुछ ही दिनों की मेहमान होती है

ज़िन्दगी कुछ ही दिनों की मेहमान होती है,
हर इंसान की आखिरी मंज़िल श्मशान होती है
परिंदों के परों को क्यों मिसाल दी जाती है?
जबकि परों से नहीं हौंसलो से उड़ान होती है
मेरे सपनों का हिन्दोस्तान है कुछ ऐसा की,
जहाँ इंसानियत सबका धर्म सबकी शान होती है
ना जाने क्यू लोग धर्म बनाते हैं बांटने के लिए?
जबकि धरती सबके लिए एक सामान होती है
लम्बी उम्र जीकर क्या करोगे जनाब ‘बेखुद’ जबकि,
यशस्वी जीवन ही शख्सियत की पहचान होती है
~महेश कुमार बोस

हाँ मत करो बात मुझसे

हाँ मत करो बात मुझसे
तुम्हारी मर्जी।
अपनो को क्या देना पडे
बार-बार माफी की अर्जी।
हाँ मानता हूं मैं हो जाती है गलतिया अक्सर
इंसान है हम खुदा तो नहीं।
जरा सी बात पर इतने दिन तक रूठे रहना
ऐसी भी क्या हो खुदगर्जी।
हाँ मत करो बात मुझसे
तुम्हारी मर्जी।
एक पल में ही भूल गए
तुम वो सारी बातें
वो कसमे-वादे
वो सब मुलाकाते।
तुमको क्या है
तुम्हारे लिए तो है
ये सारी बातें फर्जी
करलो तुम भी जितनी
करनी है तुमको मनमर्जी
हाँ मत करो बात मुझसे
तुम्हारी मर्जी।
बार-बार तुम रुठो
बार-बार मैं मनाता रहू
अब कितनी बार मैं
ये किस्सा दोहराता रहू।
सुनो अगर मैं रूठ गया ना
तो तुम लिखते ही रह जाओगे अर्जी।
बहुत हो गयी तुम्हारी मनमर्जी,
अब देखना तुम भी मेरी खुदगर्जी।
हाँ मत करो बात मुझसे
तुम्हारी मर्जी।
~ महेश कुमार बोस 

सुनहरी शाम

ये सुनहरी शाम और ये जाती हुयी सूरज की धूप,
कितना खूबसूरत लगता हैैं प्रकृति का ये अनमोल रूप।
ये हवा की हसीन अदायें,
कितनी जचती हैं ये वादियों पे फिजायें।
ये कुदरत का नजारा मन मोह लेता हैैं
राह चलते मुसाफ़िरों के कदम,
निहारने के लिए रोक लेता हैं।
ये सूरज भी ना कितना इंतज़ार करवाता हैं,
मगर जब अपने घर वापस जाता हैं।
इस सुनहरी शाम की सौगात देकर जाता हैं,
ये पहर सबके मन को बहुत भाता हैं।
इस सुनहरी शाम के नजारे को कैद करने,
कोई छत पर, कोई नदी तट पर,
कोई पर्वत पर, कोई उद्यान में जाता हैं,
ये मनमोहक नज़ारा मन को असीम सुख दिलाता हैं।

~महेश कुमार बोस

सम्मान करे आओ सब मिलकर

सम्मान करे आओ सब मिलकर राष्ट्र के माथे की बिंदी का,
गौरव गान करे आओ सब मिलकर हम हिंदी का।
वह हिंदी जो रूप अनेकों धारण करती हैं,
वह हिंदी जो करोड़ों लोगों का मन भरती हैं।
वह हिंदी जो मीरा और तुलसी की वाणी हैं,
जिस हिंदी में गायी कबीरा ने अमृत वाणी हैं।
जिस हिंदी में दिनकर, पंत, निराला लिखते थे,
जिस हिंदी के दिवाने प्रेमचंद खुद दिखते थे।
आओ उस हिंदी को जन-जन तक पहुँचाते हैं,
आओ हम सब मिलकर हिंदी दिवस मनाते हैं।
हिंदी जो तत्सम, तद्भव शब्दों को भी अपनाती हैं,
हिंदी देशी और विदेशी शब्दों को भी गले लगाती हैं।
महिमा हिंदी की सब भाषाओं से कितनी न्यारी हैं,
इसीलिए ही तो मुझको लगती हिंदी सबसे प्यारी हैं।
छंदों और अलंकारों से सुसज्जित स्वरूप निराला हिंदी का,
आओ पिये सब मिलकर नवरसों से भरा ये प्याला हिंदी का।
अंग्रेजी के कमरों पर आओ लगाये मिलकर ताला हिंदी का
उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक बोल हो बाला हिंदी का।
~महेश कुमार बोस

जिनके कांधे से दुपट्टा भी ना छुटना चाहे

जिनके कांधे से दुपट्टा भी ना छुटना चाहे,
जिसे देखकर फूल भी भरने लगते हैं आंंहे।
वो जगह महकने लगती हैं जहाँ वो जाते हैं,
हम क्या वो तो फरिश्तों पर भी सितम ढाते हैं।
उनके बारे में यारों भला अब क्या कहे हम,
बहुत कहना हैं पर वो चाहते हैं चुप ही रहे हम।
वो तो अपनी आंखों से कई पैमाने भर सकते हैं,
उनकी एक झलक पाने को लाखों दिवाने मर सकते हैं।
वो जब कभी अचानक अपनी नजरें झुकाते हैं,
गुल सभी गुलशन के एक साथ झुक जाते हैं।
वो जब हवा में यूँ ही अपना दुपट्टा लहराते हैं,
गुलाब, चमेली, मोगरे डाल संग गिर जाते हैं।
उनकी बातें तो यारों मिश्री की डलिया हैं,
उनके बाल फूलों वाले बेलो की लडियाँ हैं।
उनके गालों का तो महताब खुद दिवाना हैं,
उनके होठ जैसे किसी गुलाब की पंखुड़ियाँ हैं।
वो जब कभी हौले-हौले हंसते मुस्काते हैं,
बेमौसम ही बरखा वाले बादल छा जाते हैं।
~महेश कुमार बोस